संजय राय, भारतीय राजनीति में पिछले एक दशक के दौरान एक ऐसी भाषा और सोच विकसित होती दिखाई दी है, जिसका मूल उद्देश्य व्यवस्था से विपक्ष की प्रभावी भूमिका को धीरे-धीरे समाप्त करना या कमज़ोर करना प्रतीत होता है। इसकी शुरुआत 2013 में उस समय हुई जब गोवा में भाजपा की बैठक के दौरान नरेंद्र मोदी को चुनाव प्रचार अभियान का नेतृत्व सौंपा गया और उन्होंने अपने संबोधन में पहली बार “कांग्रेस-मुक्त भारत” का विचार देश के सामने रखा। उसके बाद वही विचार विभिन्न रूपों, नारों और स्वरूपों में बार-बार दोहराया जाता रहा—कभी “कांग्रेस संस्कृति” को खत्म करने की बात, कभी “पंजा-छोड़ो” अभियान, कभी परिवारवाद और भ्रष्टाचार समाप्त करने के नाम पर विपक्ष को लगातार कटघरे में खड़ा करना।

हालाँकि 2024 के चुनावों में कांग्रेस ने 99 सीटों के साथ अपनी उपस्थिति दिखाई, फिर भी विपक्ष को कमजोर करने के राजनीतिक प्रयास रुकते नहीं दिखे। उत्साह से भरी भाजपा अब बिहार की जीत के बाद दिल्ली से लेकर दक्षिण भारत तक विपक्षी दलों को राजनीतिक रूप से कमजोर करने में जुटी है। इसी बीच प्रधानमंत्री द्वारा सूरत में दिए एक बयान ने राजनीतिक विमर्श को फिर गर्मा दिया। उन्होंने विपक्षी सांसदों—खासतौर पर कांग्रेस के युवा नेताओं—के “करियर” को लेकर चिंता जताई और दावा किया कि उन्हें पार्टी में बोलने तक का अवसर नहीं मिलता।
लेकिन इस बयान ने एक बड़ा प्रश्न खड़ा कर दिया है: क्या सत्तापक्ष, जो अपने ही वरिष्ठ नेताओं को हाशिए पर धकेलने का लंबा इतिहास रखता है, सच में विपक्षी नेताओं के भविष्य को लेकर चिंतित हो सकता है?
राजनीति के भीतर का विरोधाभास
प्रधानमंत्री की यह “चिंता” इसलिए भी सवालों के घेरे में है क्योंकि भाजपा के भीतर ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं जहाँ वरिष्ठ नेताओं को या तो सक्रिय politics से दूर किया गया या ऐसी स्थिति में पहुँचा दिया गया जहाँ वे औपचारिक रूप से मौजूद तो रहे, पर प्रभावहीन हो गए।
2002 के बाद जब अटल बिहारी वाजपेयी मोदी को गुजरात की कुर्सी से हटाना चाहते थे, तब लालकृष्ण आडवाणी वह नेता थे जिन्होंने मोदी का बचाव किया। लेकिन आगे चलकर आडवाणी स्वयं ऐसे “मार्गदर्शन मंडल” में पहुँचा दिए गए, जिसकी कोई वास्तविक भूमिका नहीं थी।
मुरली मनोहर जोशी को वाराणसी में मोदी की उम्मीदवारी के लिए सीट छोड़नी पड़ी, बाद में वे भी इसी मंडल का हिस्सा बन गए। यही तर्क 75 वर्ष की उम्र सीमा पर भी लागू हुआ—लेकिन वही सीमा आज स्वयं मोदी के लिए अप्रासंगिक हो चुकी है।
दूसरी ओर 80 वर्ष से अधिक उम्र के कई नेताओं को राज्यपाल या मंत्री बनाया गया। परन्तु सुब्रमण्यम स्वामी, शत्रुघ्न सिन्हा, यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी जैसे नेताओं को दरकिनार करने में कोई झिझक नहीं दिखाई गई।
ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक था कि यदि भाजपा अपने ही वरिष्ठों के राजनीतिक भविष्य की परवाह नहीं करती, तो विपक्ष के करियर को लेकर उसकी “विचारशीलता” कैसे वास्तविक हो सकती है?
सत्ता बनाम आवाज़: संसद में क्या होता है?
प्रधानमंत्री के इस बयान का एक दूसरा पहलू भी है। वे कहते हैं कि विपक्षी सांसदों को बोलने नहीं दिया जाता—पर देश ने कई बार यह भी देखा है कि जब विपक्ष सवाल उठाता है, तो सत्ता पक्ष के व्यवधानों के कारण बहस अधूरी रह जाती है।
जहाँ तक राहुल गांधी का सवाल है—उनका बोलना इसलिए खटकता है क्योंकि वे भ्रष्टाचार, उद्योगपति-पक्षपात, नोटबंदी, जीएसटी, संस्थाओं पर नियंत्रण, चुनावी प्रक्रियाएँ, किसान आंदोलन, जातीय जनगणना और आर्थिक असमानता जैसे विषयों को खुलकर उठाते हैं। यह वे मुद्दे हैं जिनसे सत्ता पक्ष असहज रहता है।
और शायद यही वजह है कि राहुल गांधी के खिलाफ लगातार वैचारिक व राजनीतिक मोर्चेबंदी की जा रही है—नवीनतम उदाहरण 272 पूर्व अधिकारियों के हस्ताक्षर वाला वह पत्र है जिसमें राहुल पर “संविधान-विरोधी” टिप्पणियों का आरोप लगाया गया।
लेकिन कांग्रेस ने उसी पत्र में शामिल कई अधिकारियों पर गंभीर अनैतिक आचरण और भ्रष्टाचार के आरोप उजागर कर दिए, जिससे इस कथित नैतिक अभियान की विश्वसनीयता स्वयं संदिग्ध हो गई।
परिवारवादी राजनीति पर “रणनीतिक हस्तक्षेप”
इन दिनों बिहार की राजनीति में भी यही प्रवृत्ति देखी जा रही है। लालू यादव के परिवार में उठे मतभेदों को हवा देने की कोशिशें साफ दिखाई देती हैं। इन प्रयासों के पीछे विपक्ष को कमजोर करने की उसी बड़ी रणनीति का संकेत मिलता है, जिसकी जड़ें 2013 के “कांग्रेस-मुक्त भारत” नारे में ही छिपी हुई हैं।
वास्तविक चुनौती: लोकतंत्र को विपक्ष की आवश्यकता है
लोकतंत्र की सेहत तभी मजबूत होती है जब उसमें सत्ता का दुरुपयोग न हो और विपक्ष निर्भय होकर सवाल पूछ सके।
आज स्थिति उल्टी दिखती है—
विपक्षी दलों को कमजोर करने के प्रयास
उनके नेताओं को तोड़ने की राजनीति
आलोचनाओं को संस्थागत हमलों के रूप में चित्रित करना
असहमति को “देश-विरोध” या “अस्थिरता” से जोड़ना
ये सब संकेत हैं कि लोकतंत्र को विपक्ष से नहीं, बल्कि विपक्ष-मुक्त वातावरण बनाने की कोशिशों से खतरा है।
प्रधानमंत्री द्वारा विपक्षी सांसदों के “राजनीतिक भविष्य” को लेकर जताई गई चिंता न तो स्वाभाविक लगती है और न ही परिस्थितियों से मेल खाती है। यह उन लगातार चल रहे प्रयासों की अगली कड़ी लगती है जो देश के राजनीतिक संतुलन को एक-दलीय प्रभुत्व की ओर ढकेलना चाहते हैं।
विपक्ष, चाहे वह कांग्रेस हो, क्षेत्रीय दल हों या कोई अन्य राजनीतिक शक्ति—लोकतंत्र का सुरक्षा कवच होता है।
और यही कारण है कि आज असली खतरा किसी एक नेता या दल में नहीं, बल्कि उस सोच में है जो विपक्ष-मुक्त राजनीति को लोकतंत्र की उपलब्धि मानती है।



