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पीओके की पुकार: दमन के खिलाफ इंसाफ़ का आह्वान

संजय राय, पाकिस्तान की स्थापना धर्म-आधारित विचारधारा पर हुई थी, पर उसके छह दशकों से अधिक के राजनीतिक सफर ने यह भी दिखाया है कि केवल विचार से पक्की रजवाड़ीय स्थिरता कायम नहीं रहती। बांग्लादेश का विभाजन, अफगानिस्तान से जुड़ी जटिलताएँ और सीमाओं के भीतर उठते विद्रोह—इन सबने पाकिस्तान की अस्थिरता की तस्वीर उकेरी है। इसी अस्थिरता के बीच पाकिस्तान-नियंत्रित कश्मीर, यानी पीओके, लंबे समय से दबे और उदासीन स्थानीय संकट का केंद्र बना हुआ है।

हाल के दिनों में पीओके में जो विरोध-प्रदर्शन उभरे हैं—बिजली और आधारभूत सेवाओं की कमी, महंगे बिल, इंटरनेट कटौती और व्यापक आर्थिक उपेक्षा के खिलाफ—उनका मंसूबा नागरिक शिकायतों को आवाज़ देना था। परन्तु जब सुरक्षा बलों का दमन और गोलियों की आवाज़ें सुनाई दें, जब गिरफ्तारी और अज्ञात विलुप्तियों की रिपोर्टें सामने आएँ, तो यह स्थानीय समस्या अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार जाँच का विषय बन जाती है। जिनेवा में यूनाइटेड कश्मीर पीपुल नेशनल पार्टी द्वारा उठाए गए आरोप —हिंसा, प्रवर्तन एजेंसियों की बर्बरता, और लोगों के अधिकारों का हनन—इन सब पर विश्व समुदाय का ध्यान खींचना आवश्यक है।

पीओके के लोग बार-बार यही मांग करते आए हैं कि उनके लिए बुनियादी सुविधाएँ और न्याय सुनिश्चित किया जाए। जब देश की नागरिकता का अर्थ केवल शासन-व्यवस्था तक सीमित रह जाए और लोगों की ज़रूरतों, आवाज़ों और आज़ादी का ध्यान न रखा जाए, तो विद्रोह और असंतोष पनपना स्वाभाविक है। स्थानीय नेताओं और नागरिक संगठनों के अनुसार 29 सितंबर से चले प्रदर्शनों में दर्ज होने वाली मौतें और गिरफ्तारी की खबरें एक चिंता-जाग्रत स्थिति का संकेत हैं — हर जीवन की कीमत अनमोल है और कोई भी शक्ति इसे मामूली नहीं कर सकती।

यह समय भावनाओं के बहाव में आकर नारे लगाने का नहीं, बल्कि संयम और ठोस कूटनीतिक और मानवीय जवाब तलाशने का है। भारत के लिए पीओके का मुद्दा संवेदनशील है — ऐतिहासिक, मानवीय और राजनीतिक कारणों से। पर किसी भी कार्रवाई का स्वरूप और उद्देश्य स्पष्ट, कानूनी और अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप होना चाहिए। हिंसा का हर रूप—चाहे वह राज्य-हिंसा हो या सशस्त्र विद्रोह—नागरिकों के जीवन और अधिकारों पर प्रतिकूल असर डालता है। इसलिए भारत, जैसे किसी भी क्षेत्रीय शक्ति के, सर्वप्रथम कूटनीतिक मोर्चे पर आवाज उठानी चाहिए: संयुक्त राष्ट्र, मानवाधिकार मंच और अंतरराष्ट्रीय समुदाय के समक्ष पीओके में हो रहे मानवाधिकार उल्लंघनों का तथ्यात्मक ब्यौरा पेश करना चाहिए और त्वरित मानवतावादी पहुँच की माँग करनी चाहिए।

इसके साथ ही भारत को आवश्यक है कि वह अपनी नीतियों को ठोस तर्क और सहानुभूति के साथ पेश करे — केवल विरोध प्रदर्शन दिखाने या आक्रामक बयानबाज़ी से इस मुद्दे का समाधान असंभव है। बांग्लादेश के विभाजन से मिली सबक ने यह सिखाया है कि जटिल कूटनीति, अन्तरराष्ट्रीय समर्थन और स्थानीय जनभावनाओं का संयोजन ही ठोस और दीर्घकालिक समाधान देता है। पीओके के लोग अगर भारत के साथ समावेशन की मंशा रखते हैं, तो उनकी आवाज़ों को सुने जाने, उनकी सुरक्षा के लिए ठोस अंतरराष्ट्रीय कवायद और उनके मानवीय संकट के त्वरित समाधान की व्यवस्था की जानी चाहिए।

हमें यह भी याद रखना चाहिए कि सीमा-विवादों और क्षेत्रीय दावों के बीच सबसे अधिक प्रभावित वही लोग होते हैं जो रोज़मर्रा की जिंदगी जीते हैं—किसान, दुकानदार, छात्र, परिवार। इसलिए समाधान का केंद्र भी नागरिक की गरिमा, अधिकारों की रक्षा और विकास-अवसर सुनिश्चित करना होना चाहिए। पाकिस्तान के भीतर लोकतांत्रिक दबाव, अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संस्थाओं की निष्पक्ष जाँच और स्थानीय मामलों में पारदर्शिता—ये सभी पीओके के हालात बदलने में सहायक हो सकते हैं।

अंततः, पीओके की पुकार सिर्फ़ भौगोलिक पुनरावेदन की माँग नहीं है—यह मानवाधिकार, न्याय और गरिमा की माँग है। जो भी बाहरी हित हो, उससे ऊपर उठकर अंतरराष्ट्रीय समुदाय, क्षेत्रीय शक्तियाँ और स्थानीय नेता इस बात पर सहमत हों कि पीओके के लोग हिंसा और उपेक्षा के चक्र से मुक्त हों। भारत के लिए यह अवसर है कि वह मानवतावादी दृष्टिकोण से इस संकट को रेखांकित करे, और संयुक्त रूप से ऐसे कदम उठाये जाएँ जो पीओके में स्थायी शांति, न्याय और समावेशी विकास की राह खोलें।

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