संजय राय, लद्दाख, जिसे आमतौर पर शांति, ठंडे मौसम और आध्यात्मिक सुकून की धरती माना जाता है, हाल के दिनों में अचानक चर्चा का केंद्र बन गया। लेह-कारगिल की ऊँचाइयों पर जहां अब तक बौद्ध मठों की घंटियाँ और पर्यटकों की चहल-पहल सुनाई देती थी, वहीं अब पत्थरबाज़ी, सरकारी गाड़ियों में आगज़नी और तनावपूर्ण नारे गूंज उठे।
यह वही इलाका है, जो भारत-चीन की वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के नज़दीक है और जहाँ कुछ समय पहले तक दोनों देशों की सेनाएँ आमने-सामने खड़ी थीं। हालाँकि अब हालात सामान्य बनाने के लिए कई दौर की वार्ताएँ हो चुकी हैं। लेकिन लद्दाख के भीतर का असंतोष एक अलग ही कहानी कह रहा है।

आंदोलन की जड़ें
स्थानीय लोगों की मुख्य मांगें हैं—लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाए और उसे संविधान की छठी अनुसूची के अंतर्गत विशेष संरक्षण मिले। 2019 में जम्मू-कश्मीर से अलग कर जब लद्दाख को केंद्रशासित क्षेत्र बनाया गया, तब लोगों ने सोचा था कि अब क्षेत्र का विकास तेजी से होगा और स्थानीय आकांक्षाएँ पूरी होंगी। लेकिन राज्य का दर्जा न मिलने और राजनीतिक अधिकारों के सीमित होने से असंतोष लगातार पनपता रहा।
सोनम वांगचुक की भूमिका
प्रसिद्ध शिक्षाविद् और पर्यावरण चिंतक सोनम वांगचुक का आमरण अनशन इस असंतोष का प्रतीक बना। हालांकि उन्होंने शांति की अपील करते हुए अपना अनशन तोड़ा, लेकिन उनके आंदोलन ने युवाओं में उबाल पैदा किया। हाल की हिंसक घटनाओं को देखकर यह सवाल उठना लाजमी है कि आखिर शांत माने जाने वाले लद्दाख में इस तरह की आग कैसे भड़क उठी?
प्रशासनिक सख्ती
विरोध प्रदर्शनों के दौरान हुई झड़पों में कई लोगों की जान गई और दर्जनों घायल हुए। हालात काबू में रखने के लिए प्रशासन को कर्फ़्यू और इंटरनेट बंदी जैसे कदम उठाने पड़े। लेह और कारगिल में अब रैलियों और बड़े जमावड़ों पर पाबंदी लागू है। इस बीच राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप भी शुरू हो गए हैं।
आगे का रास्ता
लद्दाख भले ही भौगोलिक रूप से छोटा और जनसंख्या के लिहाज़ से सीमित क्षेत्र हो, लेकिन इसकी सामरिक और सांस्कृतिक अहमियत बेहद बड़ी है। भारत सरकार के लिए यह आसान नहीं होगा कि वह इसे पूर्ण राज्य बना दे, क्योंकि इसी तरह की मांगें जम्मू-कश्मीर और दिल्ली से भी उठ रही हैं। फिर भी लद्दाख के लोगों की उम्मीदें और उनका आक्रोश अनदेखा भी नहीं किया जा सकता।
निष्कर्ष
लद्दाख के मौजूदा हालात हमें यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि क्या हिंसक प्रदर्शन वास्तव में किसी समाधान की ओर ले जाएंगे, या फिर संवाद और धैर्य ही इस ठंडी धरती की असल पहचान को बनाए रख पाएंगे। सवाल यही है—लद्दाख का भविष्य ‘जेन ज़ी’ अंदाज़ की सड़क पर तय होगा, या फिर वह अपनी प्राचीन शांति और धैर्य की परंपरा को जीवित रखेगा?