
एग्जिट पोल की गूंज : राजनीति में भरोसे की गिरती रेखा
संजय राय
चुनावी मौसम में जब मतपेटियाँ बंद हो जाती हैं और जनता का फैसला ईवीएम के भीतर कैद रहता है, तभी एक नया खेल शुरू होता है — एग्जिट पोल का। यह खेल अब केवल अनुमान भर नहीं रहा, बल्कि सियासी माहौल गढ़ने का औजार बन चुका है। इस बार बिहार चुनाव में भी यही दृश्य देखने को मिला। लगभग सभी चैनलों और एजेंसियों के एग्जिट पोल्स ने एनडीए को भारी बहुमत दिला दिया। कुछ ने तो बीजेपी को ऐसी सीटें दे दीं, जो गणित और तर्क दोनों से परे हैं।
विश्वसनीयता पर सवाल
एग्जिट पोल का अर्थ होता है जनता की राय का पूर्वानुमान। लेकिन अब यह “जनता की राय” नहीं, बल्कि “जनता की राय को प्रभावित करने” का माध्यम बन गया है। 2015 के बिहार चुनाव को याद कीजिए — तब भी टीवी चैनलों ने एनडीए की सरकार बनवा दी थी। जैसे-जैसे असली नतीजे आए, वैसे-वैसे वही एंकर अपने स्क्रीन पर दिखाए जा रहे आंकड़ों को दबाने लगे। जनता की आंखों के सामने झूठ हार गया, लेकिन मीडिया की साख भी वहीं दफन हो गई।
राजनीतिक मनोविज्ञान का खेल
इस बार एग्जिट पोल सिर्फ आंकड़े नहीं दिखा रहे, वे एक मनोवैज्ञानिक माहौल बना रहे हैं — “मोदी लहर अब भी कायम है।” जबकि असल में यह लहर थमी है, और ज़मीन पर जनता के मुद्दे बदल चुके हैं। बेरोजगारी, महंगाई, किसानों का संकट और सामाजिक असमानता जैसे विषय हर गली में गूंज रहे हैं। लेकिन एग्जिट पोल इन सवालों को पीछे धकेलकर एक “जीत की कथा” गढ़ रहे हैं।
यह वही रणनीति है जो हरियाणा चुनाव में देखी गई थी — जहां स्थानीय पत्रकार कांग्रेस की बढ़त बता रहे थे, वहीं चैनलों ने बीजेपी की जीत का ढोल पीटा। बाद में जब नतीजे सामने आए, तो सवाल उठा कि क्या यह जीत जनता की थी या ‘व्यवस्थाओं’ की?
मीडिया और सत्ता का संगम
पत्रकारिता का अर्थ कभी सत्ता से सवाल करना था, लेकिन अब यह सत्ता के प्रचार का जरिया बन चुकी है। एग्जिट पोल का मंच, जनता की राय की जगह सियासी पटकथा पढ़ने का माध्यम बन गया है। यह संयोग नहीं कि हर बार बीजेपी के लिए आंकड़े “अनुकूल” निकलते हैं। यह राजनीतिक मनोविज्ञान को दिशा देने की सुनियोजित कोशिश है, ताकि जनता यह मान ले कि हवा बीजेपी के पक्ष में है।
लेकिन हवा केवल आंकड़ों से नहीं, जमीनी सच्चाई से बनती है। वही सच्चाई जो गांवों में, मजदूर बस्तियों में और किसानों के बीच है — जहां लोग अब यह पूछने लगे हैं कि “देश के मुद्दे कब उठेंगे?”
लोकतंत्र का असली इम्तिहान
भारत जैसे लोकतंत्र में चुनाव केवल वोटों का नहीं, बल्कि भरोसे का पर्व होता है। जब मीडिया जनता का भरोसा खो देता है, तो लोकतंत्र का संतुलन डगमगाने लगता है। आज जब एग्जिट पोल इतने पक्षपाती और योजनाबद्ध नजर आते हैं, तो सवाल उठना लाज़मी है कि यह आंकड़े हैं या अभियान?
14 नवंबर को जब असली नतीजे सामने आएंगे, तब यह साफ हो जाएगा कि जनता ने क्या फैसला किया। लेकिन उससे पहले जो माहौल बनाया जा रहा है, वह हमारे लोकतांत्रिक विवेक के लिए खतरे की घंटी है।
सिर्फ बीजेपी या विपक्ष की बात नहीं
यह सवाल किसी दल विशेष का नहीं है। अगर कल को यही एग्जिट पोल किसी दूसरे दल के पक्ष में झुक जाएं, तो समस्या वही रहेगी। लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका एक दर्पण की होती है — लेकिन आज यह दर्पण धुंधला कर दिया गया है।
नतीजा चाहे जो हो, सबक जरूरी है
नतीजे आने के बाद सरकार चाहे जिसकी बने, सबसे बड़ा सबक यही होना चाहिए कि “विश्वसनीयता” किसी भी लोकतंत्र की रीढ़ होती है। जब पत्रकारिता सत्ताधारी दल के सुर में सुर मिलाने लगे, तो जनता को खुद सतर्क होना पड़ेगा।
एग्जिट पोल शायद जीत-हार बता दें, लेकिन जनता का भरोसा किसके पास रहेगा — यही असली चुनाव है।



