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बिहार में चुनाव और दिल्ली में विस्फोट


अमरेंद्र कुमार राय(वरिष्ठ पत्रकार/राजनीतिक विश्लेषक)

बिहार में मंगलवार को 11 नवंबर को दूसरे और आखिरी दौर का मतदान है। इससे एक दिन पहले सोमवार को दिल्ली में लाल किले के पास एक चलती कार में बम विस्फोट हुआ जिसमें नौ लोगों की मृत्यु की खबर है। देश की राजधानी नई दिल्ली से बिहार की राजधानी पटना की दूरी करीब एक हजार किलो मीटर है। क्या इन दोनों घटनाओं का आपस में कोई रिश्ता है ?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 2014 में सत्ता में आने के बाद देश में बहुत कुछ नया हो रहा है। सबसे खास बात यह है कि यह सरकार घटनाओं या कार्यक्रमों को आयोजन के रूप में पेश करती है। कुछ इस अंदाज में कि इससे पहले न तो देश में ऐसा कुछ हुआ न भविष्य में ऐसा कुछ हो सकता है। बात-बात में कहा जाता है कि पिछले सत्तर सालों में ऐसा कभी नहीं हुआ। हालांकि यह सब बेकार की मनगढ़ंत और झूठी बातें होती हैं, लेकिन दावा जरूर किया जाता है। इसे आप वर्तमान शासक वर्ग की कुंठा कह सकते हैं। ये हर मामले में अपनी तुलना उस क्षेत्र के ताकतवर व्यक्ति से करते हैं। जैसे देश में आम धारणा है कि पंडित जवाहर लाल नेहरू देश के सबसे सुयोग्य और विद्वान प्रधानमंत्री रहे हैं। उन्होंने तीन बार आम चुनाव जीते और प्रधानमंत्री बने। देश में अभी तक सबसे ज्यादा समय तक वही प्रधानमंत्री रहे। अब यहां दो काम किया जा रहा है। एक, हर मामले में नेहरू से अपनी तुलना और दो नेहरू जैसा जो काम नहीं कर सकते वहां उनकी बनाई लकीर को छोटा करना। आजकल आप आम तौर पर सुनते रहते होंगे कि नेहरू ने कितनी बड़ी-बड़ी गलतियां कीं। यहां तक कि अगर नेहरू नहीं प्रधानमंत्री बने होते तो देश का वंटवारा भी नहीं हुआ होता। हालांकि इन बातों में कोई सच्चाई नहीं है। इन बातों को वही लोग मानते हैं जिनका इतिहास का ज्ञान शून्य है। किताबों से दूर-दूर तक वास्ता नहीं है। इसी तरह देश की सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को माना जाता है। उन्होंने पाकिस्तान को दो टुकड़ों में बांट दिया था। तो ताकतवर प्रधानमंत्री की बात होती है तो अब का शासक वर्ग अपनी तुलना इंदिरा गांधी से करता है। वे बताते हैं कि देश अब आतंकवाद बर्दाश्त नहीं करेगा। घर में घुसकर मारेगा। 2019 में पुलवामा की घटना के बाद घर में घुसकर मारा। अभी पीछे भी पहलगाम की घटना के बाद ऑपरेशन सिंदूर चलाया। कुल मिलाकर यह बताने की कोशिश की जाती है कि पिछले सत्तर सालों में इतना सुयोग्य और ताकतवर प्रधानमंत्री दूसरा नहीं हुआ। जबकि सच्चाई इसके बिल्कुल विपरीत है। जो व्यक्ति डर कर संसद का सामना न कर पाता हो, देश का एक राज्य मणिपुर जल रहा हो और वहां जाने की हिम्मत न जुटा पा रहा हो, विदेशों में लगातार अपमानित हो रहा हो, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप लगातार दावा कर रहे हैं कि व्यापार की धौंस जमाकर हमने भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध रुकवाया और अपने प्रधानमंत्री में इतना भी साहस नहीं है कि वो कह सकें कि ट्रंप झूठ बोल रहे हैं, वो नेहरू और इंदिरा गांधी की योग्यता और साहस का मुकाबला कहां से करेंगे ?
सचमुच इससे पहले देश में चुनाव और आतंकवादी घटनाओं का जुड़ाव नहीं होता था। आतंकवादी घटनाएं होती थीं, खूब होती थीं लेकिन शासक वर्ग की मंशा पर संदेह नहीं होता था कि किसी लाभ के लिए शासक वर्ग खुद इस तरह की घटनाएं करा रहा है या इन घटनाओं का राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश कर रहा है। लेकिन जब से पुलवामा की घटना घटी है तब से लोगों के मन में यह संदेह है कि इन घटनाओं के पीछे सरकार की कुछ न कुछ मंशा अवश्य है। यह सरकार अपने आप को बहुत ज्यादा ताकतवर बताती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब विपक्ष में थे और गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो सवाल उठाते थे कि सेना केंद्र के अधीन है। सीमाओं पर केंद्रीय बल तैनात हैं। फिर आतंकवादी भारत में घुस कैसे जाते हैं ? लेकिन वही मोदी जी अब जब खुद केंद्र में हैं यह नहीं बताते कि आतंकवादी कैसे भारत में घुस जाते हैं और आतंकवादी हरकत करके वापस भी चले जाते हैं। पुलवामा की घटना जहां हुई वह हाई सिक्योरिटी जोन है। वहां बिना चेकिंग के आम आदमी नहीं जा सकता। उस घटना को हुए छह साल हो चुके लेकिन आजतक यह पता नहीं चला कि वे आतंकवादी पाकिस्तान से भारत में कैसे घुसे ? उतने हाई सिक्योरिटी जोन में कैसे पहुंचे ? जिन जवानों को वायुयान के जरिये भेजा जाना चाहिए था, उन्हें सड़क के रास्ते क्यों भेजा गया ? इतनी बड़ी मात्रा में विस्फोटक सामग्री कहां से आई ? कुछ लोग शक जताते हैं कि मोदी जी की लोकप्रियता का ग्राफ तेजी से गिर रहा था। 2016 की नोटबंदी और 2017 में जीएसटी कानून लगाने के बाद मोदी जी से देश की जनता निराश थी और 2019 में इनके चुनाव जीतने की उम्मीद बिलकुल भी नहीं थी। चुनाव जीतने के लिए ही पुलवामा की साजिश रची गई। नतीजा यह हुआ कि चुनाव में इसका बखूबी लाभ उठाया गया और जहां बीजेपी और नरेंद्र मोदी के हारने की आशंका थी वहां पुलवामा के जरिये माहौल बनाकर पहले से भी ज्यादा सीटें जीती गईं। इसी तरह 2024 के चुनाव में चार सौ सीटें जीतने का दावा किया गया। लेकिन जनता ने मोदी जी को बहुमत भी नहीं दिया। सरकार बैसाखी पर आ गई। कुछ लोगों का कहना है कि तब जनता का ध्यान देश की समस्याओं से हटाने और लोकप्रियता बढ़ाने के लिए पहलगाम की घटना का उपयोग किया गया। ऐसे भी बहुत सारे लोग हैं जो मानते हैं कि पहलगाम की घटना भी राजनीतिक लाभ के लिए कराई गई। उस घटना के बाद मोदी जी ने पूरे देश में सिंदूर बंटवाने का अभियान छेड़ने की घोषणा की। पूरे देश में तिरंगा यात्रा निकाली गई। मतलब ये कि उस आतंकवादी घटना का राजनीतिक लाभ लेने की पूरी कोशिश की गई। अब जब बिहार में दूसरे चरण का मतदान है और उससे ठीक एक दिन पहले जब दिल्ली में बम विस्फोट हुआ है तो बहुत सारे लोगों के मन में ये सवाल खड़ा हो गया है कि क्या पुलवामा और पहलगाम की घटना की तरह यह घटना भी राजनीतिक लाभ के लिए कराई गई है ? क्या बिहार में मतदान को प्रभावित करने या अपने पक्ष में वोटों के ध्रुवीकरण के लिए इस घटना का उपयोग किया जाएगा ? बिहार के नतीजे दो दिन बाद 14 नवंबर को आयेंगे। शायद तब इस सवाल का जवाब मिल पाये।

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