
नदियों में डूबती ज़िंदगियाँ: हादसों का सिलसिला कब थमेगा?
संजय राय
नदियाँ जीवनदायिनी कही जाती हैं, मगर अब वे अकसर दर्दनाक हादसों की खबरों में बदल जाती हैं। गर्मियों में नहाने और सैर-सपाटे के लिए लोग नदी-नालों में उतरते हैं, लेकिन ज़रा सी असावधानी उनकी जान ले लेती है। हर साल दर्जनों नहीं, सैकड़ों परिवार ऐसे हादसों से उजड़ जाते हैं।
पांवटा साहिब का ताज़ा मामला
हाल ही में हिमाचल प्रदेश के पांवटा साहिब में तीन युवकों की जान यमुना नदी ने ले ली। एक युवक डूबने लगा तो दो साथी उसे बचाने कूद पड़े, लेकिन तीनों ही वापस नहीं लौटे। कई दिनों तक गोताखोर और पुलिस उनकी तलाश में जुटे रहे, मगर हादसे ने तीन परिवारों को हमेशा के लिए शोक में डाल दिया।
क्यों दोहराए जाते हैं ऐसे हादसे?
यह पहली बार नहीं हुआ। 2014 में मंडी ज़िले के थलौट में हैदराबाद से घूमने आए 24 छात्र लारजी प्रोजेक्ट से छोड़े गए पानी की तेज़ धारा में बह गए थे। 2019 में चंबा, नादौन और बरोट जैसे स्थानों पर एक ही दिन तीन अलग-अलग जगहों पर लोग डूबकर मर गए। आगरा की यमुना नदी में भी कई बच्चों की ज़िंदगी ऐसे ही बह गई। चेतावनी बोर्ड और प्रशासनिक अपीलें होने के बावजूद लोग इन्हें नज़रअंदाज़ करते हैं।
जिम्मेदारी किसकी?
इन घटनाओं के पीछे दोहरी लापरवाही साफ झलकती है।
लोगों की लापरवाही: मनाही के बावजूद नदियों और खड्डों में नहाने जाना।
प्रशासन की ढिलाई: सुरक्षा प्रबंध, चेतावनी और निगरानी की कमी।
अगर दोनों पक्ष अपनी ज़िम्मेदारी निभाएँ तो अधिकतर हादसों को रोका जा सकता है।
क्या होना चाहिए?
नदियों और खड्डों के किनारे रेलिंग, बैरिकेड और चेतावनी बोर्ड लगाए जाएँ।
भीड़भाड़ वाले स्थानों पर पुलिस और गोताखोरों की तैनाती हो।
पर्यटकों और स्थानीय लोगों को लगातार जागरूक किया जाए।
नियम तोड़ने वालों पर सख़्त कार्रवाई हो।
सबक कब सीखा जाएगा?
हर हादसे के बाद कुछ दिन चर्चा होती है, फिर सब भूल जाते हैं। लेकिन जो परिवार अपने बच्चों और अपनों को खो देते हैं, उनके लिए यह दर्द हमेशा का होता है। ज़रूरत है कि लोग भी सावधान हों और प्रशासन भी सख़्ती बरते, ताकि नदियाँ जीवन देने वाली धारा बनी रहें, मौत का जाल नहीं।