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दिखावा ही दिखावा है :जीएसटी सुधार और स्वदेशी का नारा

संजय राय

जीएसटी सुधारों की प्रक्रिया हमेशा से स्पष्ट रही है—निर्णय जीएसटी परिषद के माध्यम से ही लिया जाता है, जिसमें सभी राज्यों की भागीदारी अनिवार्य होती है। लेकिन इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सीधे राष्ट्रीय भाषण में घोषणा कर दी कि ‘सस्ते दिनों’ का आगाज हो गया है। यानी, बिना परिषद की औपचारिक सहमति के ही जनता को यह संदेश दिया गया कि अब सब कुछ बेहतर होगा। कुछ हफ्तों बाद केंद्र सरकार के दबाव में परिषद ने सिर्फ औपचारिक मंजूरी देकर इसे वैधता का आवरण दे दिया।

मोदी सरकार और भाजपा की इस शैली में बड़े झूठ की रणनीति साफ झलकती है—‘बार-बार झूठ बोलो, और लोग मान लें कि सच है’। जीएसटी सुधारों को ‘बचत का उत्सव’ बताकर प्रचारित किया गया, मानो आठ साल तक जटिल और असमान कर प्रणाली के कारण आम जनता से वसूली का यह छोटा सा हिस्सा बड़ी कृपा हो। इसे हिंदू त्योहारों के मौसम से जोड़कर प्रचारित करना और ‘नवरात्रि से लागू’ होने का theatrics, सिर्फ जनता का ध्यान भटकाने और इसे एक सुखद तोहफे की तरह दिखाने की कोशिश है।

सवाल उठता है—प्रधानमंत्री को खुद राष्ट्रीय भाषण में आकर यह घोषणा क्यों करनी पड़ी? पिछले छह महीनों में स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से और सूत्रों के जरिए यह जानकारी पहले ही दी जा चुकी थी। फिर भी दोबारा इसे याद दिलाना, मोदी सरकार की राजनीतिक असुरक्षा और प्रचार की रणनीति को उजागर करता है।

इस बार के सुधारों का असली प्रभाव छोटे और मध्यम उद्योगों (एमएसएमई) पर लगभग नगण्य है। 2017 में लागू जीएसटी ने इस क्षेत्र को सबसे अधिक प्रभावित किया, जो रोजगार का दूसरा सबसे बड़ा स्त्रोत है। कथित सुधारों से कीमतों में मामूली कमी आएगी, लेकिन इससे एमएसएमई के वित्तीय संकट में कोई वास्तविक राहत नहीं मिलेगी। यह उतना ही असरदार है जितना मुर्दे का हल्का करने के लिए बाल काटना—प्रतीकात्मक और दिखावटी।

वास्तविकता यह है कि इस मामूली कटौती का लाभ गरीब या मध्यम वर्ग को सीमित रूप से ही मिलेगा, जबकि संपन्न वर्ग के हिस्से में भी यह जाएगा। इस कारण अर्थव्यवस्था में वास्तविक मांग या निवेश में उल्लेखनीय वृद्धि नहीं होगी। ट्रंप के टैरिफ और एच1बी वीसा शुल्क में वृद्धि जैसे अंतरराष्ट्रीय दबावों के सामने, यह जीएसटी सुधार महज प्रचार और दिखावे का उपकरण साबित हो रहा है।

स्वदेशी और आत्मनिर्भरता के उद्घोष भी इसी तरह का प्रचार प्रतीत होते हैं। पिछले तीन-चार सालों में मोदी सरकार ने इसे कई बार दोहराया—कोरोना संकट में आत्मनिर्भरता का दावा, 20 लाख करोड़ रुपये का निवेश, रक्षा और बीमा क्षेत्र में विदेशी कंपनियों को अवसर देना—असल में ये कदम स्वदेशी की दिशा में नहीं, बल्कि विदेशी पूंजी पर निर्भरता बढ़ाने वाले रहे।

संक्षेप में कहा जाए तो, मोदी सरकार का यह “जीएसटी सुधार और स्वदेशी” अभियान वास्तविक लाभ से अधिक प्रचार का खेल है। यह जनता को दिखावे में खुश करने, मीडिया कवरेज पाने और चुनावी समर्थन जुटाने का प्रयास है, लेकिन आर्थिक और औद्योगिक संकटों को हल करने में इसकी सीमित क्षमता ही है।

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