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संसद में उठना चाहिए दम घोंटती हवा का सवाल

संजय राय, देश में वायु प्रदूषण अब किसी मौसम-विशेष की समस्या नहीं रहा, बल्कि यह एक स्थायी और गहराता हुआ जनस्वास्थ्य संकट बन चुका है। यह वह संकट है जो बिना शोर किए लोगों की उम्र घटा रहा है, बीमारियों को सामान्य बना रहा है और आने वाली पीढ़ियों की सेहत पर स्थायी असर डाल रहा है। विडंबना यह है कि इतना बड़ा खतरा होते हुए भी वायु प्रदूषण पर नीति-निर्माण के उच्चतम मंच—संसद—में वह गंभीर और निरंतर चर्चा नहीं हो पा रही, जिसकी यह मांग करता है।

आज शहरों से लेकर गांवों तक हवा में घुले सूक्ष्म जहरीले कण हर सांस के साथ शरीर में प्रवेश कर रहे हैं। वाहनों का धुआं, औद्योगिक उत्सर्जन, कोयला आधारित बिजली संयंत्र, निर्माण गतिविधियों की धूल और घरेलू ईंधन से निकलने वाला धुआं—सब मिलकर हवा को धीरे-धीरे ज़हर में बदल चुके हैं। इसकी सबसे भयावह विशेषता यह है कि इसका असर तुरंत दिखाई नहीं देता, लेकिन यह शरीर को भीतर से खोखला करता चला जाता है।

वायु प्रदूषण को अब केवल पर्यावरणीय समस्या के रूप में देखना एक बड़ी भूल होगी। यह एक सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातस्थिति है, जिसका बोझ सबसे ज्यादा उन लोगों पर पड़ता है जो इसके लिए सबसे कम जिम्मेदार हैं। झुग्गियों में रहने वाले परिवार, सड़क किनारे काम करने वाले मजदूर, औद्योगिक इलाकों के आसपास बसने वाले समुदाय—यही वे लोग हैं जो सबसे जहरीली हवा सांस में लेते हैं। इस तरह वायु प्रदूषण सामाजिक असमानता को और गहरा करता है।

आज सांस की बीमारियां जैसे अस्थमा, ब्रोंकाइटिस और सीओपीडी असाधारण नहीं रहीं। दिल का दौरा, उच्च रक्तचाप और स्ट्रोक जैसे रोगों में भी वायु प्रदूषण की भूमिका तेजी से सामने आ रही है। हवा में मौजूद सूक्ष्म कण रक्त में घुलकर हृदय और मस्तिष्क को प्रभावित करते हैं। बच्चों पर इसका प्रभाव और भी खतरनाक है। उनके विकसित हो रहे फेफड़े प्रदूषित हवा को सहन नहीं कर पाते, जिससे उनकी श्वसन क्षमता जीवनभर के लिए कम हो सकती है। बुजुर्गों और गर्भवती महिलाओं के लिए यह खतरा कई गुना बढ़ जाता है।

अंतरराष्ट्रीय आंकड़े इस संकट की भयावहता को और स्पष्ट करते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, हर साल दुनिया भर में लगभग 90 लाख लोगों की मौत वायु प्रदूषण से जुड़ी होती है। लैंसेट में प्रकाशित हालिया रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2022 में भारत में ही करीब 17 लाख मौतें वायु प्रदूषण के कारण हुईं—जो 2010 की तुलना में लगभग 38 प्रतिशत अधिक हैं। इनमें से बड़ी संख्या जीवाश्म ईंधन, विशेषकर कोयले से उत्पन्न प्रदूषण से जुड़ी है।

यह सब ऐसे समय में हो रहा है जब दिल्ली और उत्तर भारत का बड़ा हिस्सा एक बार फिर शीतकालीन धुंध की चादर में लिपटा हुआ है। कई इलाकों में पीएम 2.5 का स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन की सुरक्षित सीमा से कई गुना अधिक दर्ज किया गया है। हरियाणा जैसे राज्यों में प्रदूषण के कारण समय से पहले प्रसव के मामलों में बढ़ोतरी दर्ज की जा रही है, जो यह दिखाता है कि वायु प्रदूषण केवल सांसों तक सीमित नहीं, बल्कि जीवन की शुरुआत को भी प्रभावित कर रहा है।

भारत में वायु प्रदूषण से निपटने के लिए कानूनों और योजनाओं की कमी नहीं है। वायु (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1981 और राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (NCAP) जैसे ढांचे मौजूद हैं। लेकिन समस्या नीति के अभाव की नहीं, बल्कि उसके कमजोर क्रियान्वयन की है। स्वीकृत बजट का पूरा उपयोग न होना और लक्ष्य प्राप्ति में ढिलाई यह संकेत देती है कि वायु प्रदूषण अभी भी प्राथमिकता की सूची में ऊपर नहीं है।

राज्यों की स्थिति भी चिंता बढ़ाने वाली है। मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में “स्वच्छ शहर” का तमगा पाने वाले नगरों की हवा भी लगातार खराब हो रही है। आदिवासी और वनवासी क्षेत्रों तक प्रदूषण का दायरा फैलना बताता है कि यह संकट अब शहरी सीमाओं से बाहर निकल चुका है। इसके साथ ही, विकास परियोजनाओं के नाम पर बड़े पैमाने पर पेड़ कटाई और पर्यावरणीय नियमों की अनदेखी इस समस्या को और गंभीर बना रही है।

एक ओर नगर वन जैसी योजनाओं की घोषणा होती है, तो दूसरी ओर हजारों पेड़ों की कटाई के प्रस्ताव सामने आते हैं। यह दोहरा रवैया दर्शाता है कि विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन अभी भी नीति-निर्माण में सही जगह नहीं पा सका है।

असल सवाल यह है कि क्या हम वायु प्रदूषण को उतनी गंभीरता से ले रहे हैं, जितनी इसकी मांग है? जब तक इसे संसद में स्वास्थ्य आपातकाल के रूप में नहीं देखा जाएगा, तब तक समाधान आधे-अधूरे ही रहेंगे। वायु प्रदूषण कोई भविष्य की चुनौती नहीं, बल्कि वर्तमान की आपदा है। यदि नीति, राजनीति और समाज ने मिलकर इसे प्राथमिकता नहीं बनाया, तो आने वाले वर्षों में इसका मूल्य हमें सांसों, जीवन और उत्पादकता—तीनों से चुकाना पड़ेगा।

अब समय आ गया है कि दम घोंटती हवा का सवाल संसद के केंद्र में आए—क्योंकि यह केवल पर्यावरण का नहीं, देश के अस्तित्व और नागरिकों के जीवन का प्रश्न है।

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