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मुंबई में भाषा की मार ! अर्णव की आत्महत्या और हमारी सामूहिक शर्म !

मुंबई में भाषा की मार ! अर्णव की आत्महत्या और हमारी सामूहिक शर्म ! यहाँ मराठी में ही बोलना पड़ेगा !

कल्याण से आई खबर ने दिल को चीर दिया। अर्णव खैरे। उम्र महज बीस के आसपास। कॉलेज का छात्र। सुबह की लोकल ट्रेन में कॉलेज जा रहा था। धक्का लगा। उसने हिंदी में कहा “भाई, थोड़ा आगे हो जाओ।” बस इतनी-सी बात। फिर शुरू हुआ तमाशा। “मराठी बोल ना!” “यहाँ मराठी में ही बोलना पड़ेगा!” थप्पड़। मुक्के। धक्के। चार-पाँच लोग। बाकी यात्री तमाशबीन। अर्णव डर गया। मुलुंड की बजाय ठाणे में उतरकर भागा। घर पहुँचा तो रोते-रोते पापा को बताया। और रात में… फाँसी का फंदा। एक जवान लड़का, जिसका अभी-अभी जीवन शुरू हुआ था, हमारी भाषाई कट्टरता की भेंट चढ़ गया। हम क्या बनते जा रहे हैं! मुंबई। दुनिया का सबसे बड़ा महानगर। यहाँ हर कोने से लोग आते हैं। बिहार से, उत्तर प्रदेश से, गुजरात से, केरल से, तमिलनाडु से, बंगाल से। सबके सपने एक जैसे ,दो वक्त की रोटी, बच्चों का भविष्य, थोड़ी-सी खुशी। हम कहते हैं , मुंबई हमारी है। हाँ, मुंबई मराठी लोगों की भी है। पर क्या सिर्फ मराठी लोगों की है! जो मराठी बोलता है, उसका खून लाल है।
जो हिंदी बोलता है, उसका खून लाल है। जो तमिल, तेलुगु, भोजपुरी, मलयालम बोलता है , सबका खून एक ही रंग का है।
फिर हम एक-दूसरे को मार क्यों रहे हैं! अर्णव को पीटा गया क्योंकि उसने हिंदी बोली। कल को किसी और को पीटेंगे क्योंकि उसने मराठी नहीं बोली। परसों किसी को मारेंगे क्योंकि वह गुजराती बोल रहा था। और जब सब मर जाएँगे, तब बचेगा कौन जो बोले ,“मुंबई हमारी है”! हम भाषा को हथियार बना रहे हैं।भाषा जो जोड़ने के लिए होती है, हम उसे तोड़ने का औजार बना रहे हैं। माँ अपने बच्चे को पहली बार जो बोल सिखाती है, वह मराठी हो सकती है, हिंदी हो सकती है, कोई और भी। पर माँ का प्यार एक ही भाषा में बोलता है ,ममता की भाषा में।
उसे हम भूल गए। अर्णव के पिता का दर्द सुनकर आँखें भर आती हैं। “मेरा बेटा डर के मारे मुझे बता रहा था… वह आगे ऐसी चीजें नहीं होनी चाहिए…” पर अब क्या होगा! अब अर्णव लौटकर नहीं आएगा। उसकी माँ का आँचल खाली रहेगा।
उसके पिता की आँखें हमेशा नम रहेंगी। और हम! हम फिर अगली ट्रेन में किसी और को “भाषा सिखाने” निकल पड़ेंगे ! यह सिर्फ अर्णव की मौत नहीं है। यह हमारी इंसानियत की मौत है।हम माँग करते हैं , भाषाई आधार पर हिंसा को गैर-जमानती अपराध बनाया जाए। लोकल ट्रेनों में सख्त निगरानी हो, ताकि कोई अकेला यात्री असुरक्षित न महसूस करे। स्कूलों-कॉलेजों में बच्चों को सिखाया जाए कि भाषाएँ बाँटने के लिए नहीं, मिलाने के लिए होती हैं।अर्णव, माफ करना। हम तुम्हें बचा न सके। पर तुम्हारी याद में वादा करते हैं ,अबकी बार जब कोई ट्रेन में हिंदी, या गुजराती, या भोजपुरी ,हम चुप नहीं रहेंगे। ,हम खड़े होंगे। और बोलेंगे ,“अर्णव को भावपूर्ण श्रद्धांजलि। और उसकी आत्मा को शांति।

  • इंद्र यादव (राजनीतिक समीक्षक /पत्रकार, ईशान टाइम्स ग्रुप)
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