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मुंबई का "वड़ा पाव" प्रवासी मजदूरों की "महाराजा थाली" है

मुंबई एक ऐसा शहर जो सपनों का पीछा करने वालों का घर है। यहाँ की सड़कों पर भागमभाग, ट्रेनों की रफ्तार और लोगों की जिंदगी का रंग हर कोने में बिखरा हुआ है। इस शहर की आत्मा में बस्ता है उसका वड़ा पाव, जो न सिर्फ़ एक नाश्ता है, बल्कि मुंबई की संस्कृति और प्रवासी श्रमिकों की जिंदगी का एक अनमोल हिस्सा है। लेकिन समय बदल रहा है, और इसके साथ ही मुंबई की गलियों में स्वाद का स्वरूप भी बदलता नजर आ रहा है। मुंबई की सड़कों पर चलते हुए अगर आपको भूख लगे, तो वड़ा पाव से बेहतर और सस्ता विकल्प शायद ही मिले। यह मसालेदार आलू का वड़ा, जिसे नरम पाव में लपेटकर लाल चटनी और हरी मिर्च के साथ परोसा जाता है, हर प्रवासी श्रमिक की थाली का हिस्सा रहा है। चाहे वह दिहाड़ी मजदूर हो,
रिक्शावाला हो, या फिर ऑफिस जाने वाला कर्मचारी, वड़ा पाव ने सबके पेट और दिल को जीता है।

जयराम वालनकर, जिन्हें लोग प्यार से “वड़ा पाव वाले मामा” कहते हैं, पिछले 25 सालों से मुंबई में वड़ा पाव बेच रहे हैं। वह बताते हैं सुबह-शाम मजदूर भाई लोग 10-15 रुपये में पेट भर लेते थे। वड़ा पाव उनका भोजन था, उनका साथी था। लेकिन अब समय बदल रहा है। जयराम मामा की बातों में एक सच्चाई छिपी है। आज की युवा पीढ़ी और नई जनरेशन के प्रवासी श्रमिकों की पसंद बदल रही है। मुंबई की गलियों में अब वड़ा पाव के साथ-साथ पिज्जा, बर्गर और चायनीज खाने की खुशबू भी तैरने लगी है। मॉल्स, फूड कोर्ट्स और फास्ट-फूड चेन्स ने युवाओं को अपनी ओर खींच लिया है। जयराम मामा कहते हैं, “अब लोग वड़ा पाव के साथ-साथ नूडल्स, मंचूरियन और पिज्जा माँगते हैं। मेरे कुछ ग्राहक तो कहते हैं, ‘मामा, कुछ नया लाओ! यह बदलाव सिर्फ़ स्वाद का नहीं, बल्कि जीवनशैली का एक हिसा भी है। पहले जहाँ प्रवासी श्रमिक अपनी मेहनत की कमाई से सस्ता और पेट भरने वाला खाना ढूँढते थे, वहीं अब नई पीढ़ी के श्रमिक, जो स्मार्टफोन और सोशल मीडिया के साथ बड़े हुए हैं, वैश्विक स्वाद का अनुभव चाहते हैं। पिज्जा और बर्गर उनके लिए सिर्फ़ खाना नहीं, बल्कि एक स्टेटस और आधुनिकता का प्रतीक बन गया है। हालाँकि, इस बदलते स्वाद का असर प्रवासी श्रमिकों की जेब पर भी पड़ रहा है। वड़ा पाव, जो 10-15 रुपये में मिल जाता है, अब भी उनके लिए सबसे किफायती विकल्प है। वहीं, एक पिज्जा या बर्गर की कीमत 100 रुपये से शुरू होती है, जो कई श्रमिकों के लिए रोज़मर्रा का खर्च नहीं हो सकता। जयराम मामा कहते हैं, “कई मजदूर भाई मेरे पास आते हैं और कहते हैं, ‘मामा, वड़ा पाव ही दे दो, बाकी चीज़ें तो सपना हैं। इसके बावजूद, कुछ युवा प्रवासी श्रमिक, जो बेहतर आय और नौकरियों के साथ शहर में आए हैं, फास्ट फूड को अपनाने लगे हैं। यह उनके लिए सिर्फ़ खाना नहीं, बल्कि मुंबई की चकाचौंध भरी ज़िंदगी का हिस्सा बनने का एक तरीका है। हमनें पूछा क्या वड़ा पाव अपनी जगह खो रहा है? जयराम मामा मुस्कुराते हुए कहते हैं, “नहीं, वड़ा पाव तो मुंबई की जान है। लोग पिज्जा खाएँ, बर्गर खाएँ, लेकिन जब पेट और जेब दोनों को संतुष्ट करना हो, तो वड़ा पाव ही याद आता है।” वह यह भी मानते हैं कि बदलते समय के साथ उन्हें भी कुछ नया करना होगा। अब वह अपनी गुमटी में वड़ा पाव के साथ-साथ चायनीज वड़ा और पाव-भाजी जैसे नए व्यंजन भी शामिल करने की सोच रहे हैं।मुंबई का वड़ा पाव सिर्फ़ एक खाना नहीं, बल्कि इस शहर की विविधता, मेहनत और सपनों का प्रतीक है। यह प्रवासी श्रमिकों की थाली का आधार रहा है और रहेगा। लेकिन बदलते समय और नई पीढ़ी की पसंद ने यह दिखा दिया है कि मुंबई की गलियाँ अब सिर्फ़ वड़ा पाव की खुशबू से नहीं, बल्कि पिज्जा, बर्गर और चायनीज के स्वाद से भी महक रही हैं। जयराम मामा जैसे लोग इस बदलाव को अपनाने को तैयार हैं, लेकिन उनका मानना है कि वड़ा पाव का स्थान कोई नहीं ले सकता। आखिर, यह मुंबई की धड़कन है, जो हर प्रवासी के दिल में बसती है।

  • इंद्र यादव,ठाणे, indrayadavrti@gmail.com
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