इंद्र यादव – स्वतंत्र लेखक,भदोही ( यूपी ), भारत की राजनीति एक रंगमंच है, और इस मंच पर दो ऐसे पात्र हैं जो बिना स्क्रिप्ट के भी हर दृश्य में चमकते हैं—चमचे और भक्त। ये वो लोग हैं जो न तो संविधान में दर्ज हैं, न ही सरकारी रजिस्टर में, मगर फिर भी हर रैली, हर टीवी डिबेट, और हर सोशल मीडिया थ्रेड में इनकी उपस्थिति अनिवार्य है।
चमचा बोले तो वफादारी का दूसरा नाम है गुरु। चमचा कोई नई प्रजाति नहीं है। ये वो लोग हैं जो अपने नेता के हर फैसले को, चाहे वह कितना भी अव्यवहारिक हो, सिर-आंखों पर चढ़ाते हैं। अगर नेता कहे कि चांद पर खेती होगी, तो चमचा तुरंत ट्रैक्टर की बुकिंग शुरू कर देगा। इनकी खासियत है कि ये सवाल नहीं करते, सिर्फ तारीफ करते हैं। चाहे नेता जी की नीति से महंगाई आसमान छूए या सड़कों पर गड्ढे गहरे हों, चमचा हर हाल में कहेगा, “ये सब तो दीर्घकालिक रणनीति है, तुम्हें क्या समझ आएगा!” चमचे हर पार्टी में हैं। ये रंग-बिरंगे झंडों के पीछे एकजुट होकर नारे लगाते हैं, और अगर मौका मिले तो विरोधियों को ट्रोल करने में भी पीछे नहीं हटते। इनका सबसे बड़ा हथियार है—तर्कहीन तर्क। जैसे, “हमारे नेता ने ये गलत किया, लेकिन तुम्हारे नेता ने तो वो गलत किया था!” इस तर्क का जवाब देना वैसा ही है जैसे समुद्र में नमक की मात्रा गिनना।

चमचे का उन्नत संस्करण है। जहां चमचा वफादारी में डूबा रहता है, वहीं भक्त आस्था के सागर में गोते लगाता है। भक्त के लिए नेता सिर्फ एक इंसान नहीं, बल्कि एक अवतार है। अगर नेता जी ने ट्वीट किया कि “सूरज आज नीला है,” तो भक्त न सिर्फ नीले सूरज की तस्वीरें ढूंढ लेगा, बल्कि विरोधियों को “सूरज-अंधा” भी करार दे देगा। भक्तों की खासियत है कि वे हर आलोचना को देशद्रोह और हर सवाल को साजिश मानते हैं। अगर आप कहें कि “नेता जी की नीति से बेरोजगारी बढ़ी,” तो भक्त तुरंत जवाब देगा, “तुम्हें क्या पता, ये सब 2047 के विकसित भारत का मास्टरप्लान है!” भक्तों का सोशल मीडिया अकाउंट एक तीर्थस्थल है, जहां हर पोस्ट में “जय श्री” से लेकर “विकास की गंगा” तक का जिक्र होता है। चमचे और भक्त में अंतर समझना मुश्किल है, लेकिन अगर गौर करें तो चमचा जमीनी स्तर का सिपाही है, जो रैलियों में पानी की बोतलें बांटता है और स्थानीय कार्यकर्ताओं को खुश रखता है। वहीं भक्त डिजिटल योद्धा है, जो व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से डिग्री लेकर हर ऑनलाइन बहस में कूद पड़ता है। चमचा ज्यादातर व्यक्तिगत लाभ के लिए निष्ठा दिखाता है—शायद एक टिकट, एक ठेका, या कम से कम एक सेल्फी। भक्त का मकसद बड़ा होता है—वो अपने नेता को इतिहास के पन्नों में अमर करना चाहता है, भले ही इसके लिए उसे तथ्यों को थोड़ा मोड़ना पड़े। ऐसा लगता है जैसे स्कूल में जब ज्ञान बंट रहा था तो उस समय चमचे और भक्त नेताजी के रैली की तैयारी में जुटे थे।चमचे और भक्त भारतीय राजनीति के मसाले हैं। बिना इनके, रैलियां सूनी, टीवी डिबेट बेस्वाद, और ट्विटर शांत होता। लेकिन इनकी अतिशयोक्ति कई बार लोकतंत्र के लिए चुनौती बन जाती है। जब सवाल पूछने की जगह तारीफ करने की होड़ लगती है, तो जवाबदेही कमजोर पड़ती है। फिर चाहे सड़क पर गड्ढा हो या नीति में खामियां, सब “नेता जी की माया” में ढक जाता है। हमें लगता है जैसे चमचे और भक्त, दोनों ही भारतीय राजनीति के रंग हैं। इनके बिना शायद हमारा लोकतंत्र इतना जीवंत न होता। लेकिन अगर आप भी कभी चमचागिरी या भक्ति के रास्ते पर निकलें, तो एक बार रुककर सोच लें—क्या आप अपने नेता के लिए बोल रहे हैं, या अपने विवेक के लिए।